मंगलवार, 4 अगस्त 2009

ये मेरा देश है.........


घटना एक महीने से भी ज़्यादा पुरानी है। लखनऊ शहर में एक महिला की अपने पति से अनबन थी और पति की पुलिस वालों से दोस्ती। पत्नी ने उत्पीड़न की शिकायत दर्ज कराई, कोई कार्रवाई नहीं हुई। महिला आला अफसरान तक गयी, उसे मदद और इंसाफ का भरोसा दिलाया गया। उसी रोज़, आधी रात के समय वर्दी वालों ने उसके मकान पर धावा बोला, महिला की बेतहाशा पिटाई की गयी, पुलिस वाले उसके पांव पर कूदे और पांव तोड़ दिया। महिला की १२ वर्षीय बिटिया ने विरोध किया तो दरोगा ने पैंट की चेन खोल दी और लडकी के साथ दुर्व्यवहार का प्रयास किया। इस बीच मुहल्ले वाले जुट गये और उनके विरोध पर 'वीर जवानों' का टोला धमकियाँ देते हुए फरार हो गया।

पुलिस को सूचना दी गयी, कोई कार्रवाई नहीं हुई। एक महिला संगठन की अध्यक्षा उसकी सहायता के लिए आयीं, मेडिकल कराया। पुलिस खामोश रही। घटना की गूँज जब अख़बारों में आई तब पुलिस के एक अधिकारी महिला तक पहुंचे, उसका बयान लिया, 'इंसाफ' का भरोसा दिलाया। घटना की रिपोर्ट दर्ज तो हो गयी लेकिन अज्ञात पुलिस वालों के नाम। जबकि महिला ने सबके नाम बताये थे। मेडिकल रिपोर्ट भी पुलिस वालों ने दबा ली। आरोपितों की तलाश जारी थी।

अख़बारों में पूरा मामला छपने, पुलिस पर एक बार फिर दाग लगने और शायद राजधानी शहर में महिला उत्पीड़न का किस्सा बनते देख, सूबे के पुलिस प्रमुख को महिला के दरवाजे पर जाकर माफी मंगनी पडी, इन्साफ का अपने मुंह से भरोसा दिलाना पडा, अपनी जेब से इलाज के लिए पैसे देने पडे। खैर, डी जी पी की पहल पर आरोपितों की गिरफ्तारी हो गयी और कथा का सुखद अंत हो गया।

लेकिन कहानी तो अब शुरू हुई है। जिस दरोगा पर पिटाई, अश्लीलता, अभद्रता, पैर तोड़ने का आरोप है, उसे कुछ दिन पहले जमानत मिल गयी। दो दिन पूर्व, जांच के दौरान ही उसे बहाल कर दिया गया। आख़िरी तड़का यह रहा की पुलिस ने महिला की सुरक्षा के लिए जिस महिला एस आई को तैनात किया था, कल उसने ही जबरदस्ती महिला के घर का सामान उसके पति के हवाले कर दिया। इस मामले में जब सी ओ सहायता के लिए गये तो उन्हें भी नाकाम लौटना पडा। झेंप मिटाने के लिए उनका बयान है कि महिला ने अपनी मर्जी से सामान पति को सौंपा है।

इस घटना से कुछ सवाल पैदा होते हैं---- मानवाधिकार किस चिडिया नाम है? पुलिस वालों को ऐसे संस्कार अपने मां-बाप-परिवार से मिलते हैं या पुलिस ट्रेनिंग में ऐसा कुछ अनिवार्य बताया गया है। १२ वर्ष की बच्ची के सामने नंगा होना, अस्मत लूटने का प्रयास क्या है? क्या पुलिस वाले अपनी बहन-बेटी-बहू के साथ भी ऐसा हो तो विभागीय मामले के नाम पर शांत रहेंगे? डी जी पी के आश्वासन, इन्साफ के भरोसे का जब ये हाल हो तो 'भरोसा' किसका किया जाए? इस घटना पर किसी सियासी दल के अदना से नेता का भी बयान नहीं आया।आए भी क्यों, जब उनके भाई-भतीजों या उनके हितों की रखवाली करने वाले किसी गुंडे-मवाली पर पुलिस टूटेगी तब न ये लोग शासन-सरकार-समाज की ऐसी तैसी करेंगे। वो महिला इनकी कौन थी। चुनावों का मौसम भी नहीं कि इस पर रोटियां सेंकी जायें।

जो शूरवीर पुलिस उस रात कारनामे दिखा रही थी बताये कि क्या महिला आतंकवादी थी, वो होती तो यही सूरमा हाथ बांधे थर-थर काँप रहे होते। अगर वेश्या होती तो भी ये लार टपकाते तलुवे चाट रहे होते।

मैं तो कथा सुना चुका, आप क्या कहते हैं?

2 टिप्‍पणियां:

  1. उफ बहुत दुखदायी!!
    मानवािधकार कुछ भी नही है भाई!
    एक अंधेर दरवाजरा है जिसमें जाने के बाद त्रस्त बहुत त्रस्त होकर रह जाता है
    कही कोई सुनवाई नही होती।
    भगवान के घर देर तो है ही बुरी तरह अंधेर भी है।

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